वर्तमान में बच्चों का भविष्य कहीं खोता जा रहा है या यूं कहें कि बचपन अब बहुत कम समय का रह गया है, तो गलत नहीं होगा। नर्सरी में पढऩे वाले बच्चों को ही आज इतना होमवर्क मिलने लगा है कि धमाचौकड़ी करने वाले बच्चे अब किताबों में उलझकर रह गये हैं। बच्चों का सबसे अधिक समय स्कूल में ही बीतता है। प्राय: आधी नींद में ही बच्चे को उठाकर स्कूल भेजना अभिभावकों की मजबूरी है। स्कूल जाने वाले बच्चों को अनेक स्वास्थ्य समस्याओं का सामना करना पड़ता है, जिसके केवल शारीरिक ही नहीं, मानसिक और भावनात्मक प्रभाव भी होते हैं।श्रवण क्षमतास्कूल के दौरान बच्चों में कई बार सुनने की क्षमता में कमी की समस्या देखने में आती है। कान में बार-बार संक्रमण या बार-बार होने वाली सर्दी-खांसी से बच्चा परेशान हो जाता है। वह स्कूल में पढ़ाई जाने वाली बात को सही तरह से सुन-समझ नहीं पाता। यह समस्या वह ठीक तरह से घर पर भी नहीं बता पाता और कई बार मनोवैज्ञानिक तौर पर टूट जाता है। क्या करेंमाता-पिता हर सप्ताह बच्चे का कान, गला, नाक और मुंह की जांच करें। इससे उसे सामान्य स्वास्थ्य संरक्षण के लिए तो प्रेरित करेंगे ही साथ ही यदि किसी प्रकार की गड़बड़ी दिखती है, तो तत्काल चिकित्सा कराने में भी सहायता मिल सकती है। बच्चे को यदि सिर से नहलाकर भेजते हैं, तो कोशिश करें कि आप स्वयं उसके बालों को अच्छी तरह सुखा दें। बारिश में भीगने पर पहले सिर पोछने की आदत डालें। ठंड के दिनों में कान बांधकर या कान में रुई डालकर भेजें। बच्चे प्राय: स्कूल में मुंह की सफाई पर ध्यान नहीं देते, इसलिए आते साथ उसको कुल्ला करने की आदत डालें। आंखों की समस्याएंबच्चों में आंखों की समस्या होना भी आम है जैसे आंखों में बार-बार रोहें होना, बार-बार खुजली होना, आंखों का बार-बार लाल होना, आंखों से पानी आना आदि। इसके अलावा बच्चा अनेक बार बोर्ड पर लिखा दिखाई न देने की बात कहता है। कई बार उसके पढऩे के तरीके में परिवर्तन दिखता है। वह किताब को एकदम पास से पढऩे का प्रयास करता है। इस पर गौर करके सही उपचार किया जा सकता है। क्या करेंअभिभावकों को चाहिए कि वे उसकी कॉपी देखें। घर पर उसके पढऩे-लिखने के तरीके पर गौर करें। स्कूल में पढऩे के दौरान आने वाली समस्याओं के बारे में पूछें जैसे बोर्ड पर लिखा हुआ दिखता है या नहीं या बोर्ड चमकता हुआ तो दिखाई नहीं देता आदि। हालांकि अब स्कूल के शिक्षक इन बातों पर गौर करते हैं और बच्चों का कक्षा में स्थान परिवर्तन कराते रहते हैं।चोटिल होनातीसरी सबसे बड़ी समस्या होती है चोटों की। प्राय: बच्चे स्कूल में धमाचौकड़ी मचाते रहते हैं, जिसके चलते उनमें विविध प्रकार के आघात भी होते रहते हैं। ये चोटें कभी-कभी खतरनाक साबित होती हैं क्योंकि अनेक बार बच्चे अपनी इन चोटों के बारे में डर के कारण पेरेंट्स को नहीं बताते।क्या करेंस्कूल से आने के बाद बच्चे का सरसरी तौर पर निरीक्षण अवश्य करें। अगर उसके शरीर पर कहीं भी किसी भी तरह का निशान देखते हैं या उसकी शारीरिक गतिविधि में अकस्मात परिवर्तन देखें, तो उसे समझें और स्कूल में इस बारे में बात करें। आवश्यक होने पर चिकित्सक से परामर्श करें।
त्वचा विकारचौथी बड़ी समस्या जिससे स्कूली बच्चे परेशान होते हैं, वह है त्वचा संबंधी। त्वचा विकारों का बहुधा संक्रमण बच्चों में होता है। आपस मे सहभोजन या सहचर्या से ये बीमारियां एक दूसरे में तेजी से फैलती हैं। यदि बच्चे के वैयक्तिक स्वास्थ्य पर हम ध्यान दें, तो अधिकतर समस्याओं से हमें मुक्ति मिल सकती है। क्या करेंनाखून, कपड़े, रूमाल, मोजे, टिफिन, वाटरबॉटल, टाई की सफाई पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता होती है। मानसिक प्रभावपांचवी बड़ी समस्या होती है मनोवैज्ञानिक। विविध आर्थिक और बौद्धिक पृष्ठभूमि के बच्चों के बीच कई बार कुछ बच्चे सामान्य तौर पर खुद को अस्वस्थ महसूस करते हैं। ऐसे समय में अभिभावकों का दायित्व बनता है कि बच्चे को अपनी स्थिति समझाते हुए मानसिक तौर पर सक्षम बनाएंं। यही वह समय होता है, जब आप अपने बच्चेे को सही नागरिक बनाने का काम करते हैं, वरना बच्चे में कुंठा, ईष्र्या, विद्रोह, हिंसा,चोरी जैसे गुणों का विकास होने लगता है। आज अच्छा बच्चा होने से ज्यादा महत्वपूर्ण है, अच्छा अभिभावक होना। सामंजस्य का अभावछठी बड़ी समस्या होती है, परिस्थिति के साथ तालमेल बैठाना। हर अभिभावक अपने बच्चे को बेहतर देने का प्रयास करता है। आज अधिकतर अभिभावक अपनी कमियों या अपूर्ण आकांक्षाओं और इच्छाओं को बच्चे के माध्यम से पूरा करने का प्रयास करते हैं। ऐसे में बच्चा विचित्र परिस्थितियों से जूझने लगता है। वह तालमेल नहीं बना पाता और परिवार, शिक्षक, समाज और दोस्तों के बीच समन्वय के अभाव में अपने बेहतर परिणामों से विमुख होने लगता है। बच्चे हमारी पूूंजी हैं, उनका समग्र स्वास्थ्य हमारी प्राथमिकता होना चाहिए। हमें बच्चों के लिए विशेेष सावधान व सजग होने की आवश्यकता है। निरोगी जीवन का महत्व बच्चे को बताएं। उसके साथ स्वास्थ्य संरक्षण के प्रयत्नों में मदद करें। आयुर्वेद को स्वीकार करें तथा उसे दैनंदिन जीवन में अपनाएं।
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