पसली का दर्द या पसली चलना शिशुओं की सामान्य समस्या है, जिसका समय पर उपचार न करने पर यह गंभीर श्वांस रोग अथवा क्षय रोग में बदल सकता है। आयुर्वेद में इस रोग को श्वसनक ज्वर/उत्फुलिका माना जाता है तथा आधुनिक विज्ञान में इसे न्यूमोनिया कहा जाता है। पसली का दर्द शिशुओं में अधिकतर देखा जाता है, क्योंकि इनमें रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होती है। शीत-ऋतु में यह रोग होने की आशंका अधिक होती है ? कारणपसली चलने के अनेक कारण हो सकते हैं जैसे- बहुत छोटे शिशुओं में गलत तरीके से दूध पिलाए जाने के कारण दूध का श्वास नली में चले जाना।सोते हुए बच्चे को बोतल से दूध पिलाना।शीत-ऋतु में सर्दी से बचाव न करना, गर्म कपड़े नहीं पहनना तथा ठंडे पानी में खेलना।नहलाते समय पानी श्वांस नली में चला जाना।जीवाणु, विषाणु आदि का संक्रमण होना।उपरोक्त कारणों में श्वसन संस्थान के निचले भाग में शोथ हो जाता है तथा विभिन्न लक्षण उत्पन्न होते हैं।लक्षणविभिन्न अवस्था तथा आयु के अनुसार भिन्न-भिन्न लक्षण हो सकते हंै जैसे एक वर्ष तक के बच्चे में सांस गति तीव्र होना, उलटी आना, खांसी होना, तेज बुखार होना, पसली चलना तथा बच्चे द्वारा दूध न पीना इत्यादि। एक से पांच वर्ष तक के बच्चों मे तीव्र कास, बुखार, सांस गति तेज होना आदि लक्षण मिल सकते हैं। पांच वर्ष से बड़े बच्चों में शुष्क कास, बुखार, सिरदर्द, थकान आदि लक्षण होते हैं। इसके अतिरिक्त कभी-कभी कण्ठशोथ, भूख न लगना तथा स्फूर्ति की कमी जैसे लक्षण भी मिल सकते हैं। रोग के उग्र लक्षण (जैसे तेज बुखार, पसीना अधिक आना, त्वचा लाल होना, होठ व नाखून नीले होना, सांस लेने में अधिक परेशानी होना तथा सांस लेते समय सीटी जैसी आवाज आना) दिखने पर तुरन्त चिकित्सक की सलाह लेनी चाहिए। बचावछोटे बच्चों को सही तरीके से बैठकर ही दूध पिलाना चाहिए तथा बोतल का प्रयोग नहीं करना चाहिए। शिशु को गीला नहीं रहने देना चाहिए। गीले कपड़े तुरंत बदलने चाहिए। सर्दी से बचाव करना चाहिए तथा ठंडी चीजों का प्रयोग नहीं करना चाहिए। यथासंभव जीवाणु, विषाणु इत्यादि के संक्रमण से बचना चाहिए। टीकाकरण समय पर करना चाहिए। रोग की प्रारम्भिक अवस्था में ही चिकित्सक से परामर्श लेना चाहिए। चिकित्सापानी की कमी न होने दें। कुनकुना पानी बार-बार बच्चे को दें। औषधयुक्त जल भी दे सकते हैं। 1 वर्ष तक के शिशु को सितोपलादिचूर्ण 1 ग्राम$, टंकण भ्रस्म 50 मि.ग्रा , गोदन्ती 100 मिग्रा, लक्ष्मीविलास रस 125 मि.ग्रा. की मात्रा में दो से तीन बार देें। बड़े बच्चों में गोजिव्हादि क्वाथ 5-10 मि.ली. शहद के साथ दिन में तीन बार दें। सितोपलादि चूर्ण, श्वास कुठाररस, बालचतुर्भद्र रस, गुडूची सत्व का आवश्यकतानुसार प्रयोग कर सकते हैं। हरिद्रा खण्ड, च्यवनप्राश, वासावलेह आदि का रोगावस्था में, बाद में भी बचाव हेतु तथा रोगप्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने हेतु 3 से 6 माह तक प्रयोग किया जाना चाहिए।इसके अतिरिक्त आवश्यकतानुसार एंटीबायोटिक्स का प्रयोग भी चिकित्सक के निर्देशानुसार करना चाहिए। उपरोक्त चिकित्सा चिकित्सक के परामर्श के बिना नहीं लेनी चाहिए ।
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